16वीं लोकसभा के लिए बिगुल बजते ही चुनाव प्रचार जोर-शोर से शुरू हो गया। मतदाताओं को लुभाने के लिए उम्मीदवारों ने नफरत भड़काने वाली बयानबाजी शुरू कर दी। तमाम राजनीतिक दलों के नेता विरोधियों के खिलाफ आग उगल रहे हैं। यह प्रवृत्तिभारतीय संस्कृति और लोकतंत्र के मूल स्तंभों को ही ध्वस्त कर रही है। भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी की बोटी-बोटी करने वाला बयान हो या सोनिया और राहुल गांधी के कपड़े उतार कर इटली भेज देने का, आम चुनाव में नफरत का स्वर रह-रह कर उठ रहा है। वसुधैव कुटुंबकम की पैरवी करने वाले समाज के लिए यह प्रवृत्तिबेहद घातक है। वास्तव में, यह लोकतंत्र की ही देन है जो हिंदुस्तानी संस्कृति को नष्ट कर सकती है। पिछले महीने सर्वोच्च न्यायालय ने नफरत फैलाने वाली बयानबाजी पर अंकुश लगाने का असफल प्रयास किया था। जस्टिस बीएस चौहान, एमवाई इकबाल और एके सिकरी की अदालत ने लंबी सुनवाई के बाद प्रवासी भलाई संगठन की जनहित याचिका पर विचार करते हुए चुनाव के मौसम में ऐसे भाषणों पर अंकुश लगाने की कोशिश की, परंतु सही मायने में न्यायालय के आदेश के बावजूद वोट बैंक के तुष्टीकरण के प्रयास में भड़काऊ भाषणों का सिलसिला जारी है। उत्तार प्रदेश सरकार में मंत्री आजम खान से लेकर केंद्र सरकार के मंत्री बेनीप्रसाद वर्मा तक ऐसे कई और नाम हैं। राजनेताओं के वक्तव्यों से इतना तो साफ है कि चर्चा में बने रहने के लिए भड़काऊ भाषण बेहद कारगर उपाय है। सहारनपुर के कांग्रेस नेता इमरान मसूद भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के संबंध में की गई टिप्पणी के कारण जेल की हवा खा चुके हैं। यह सिलसिला यहीं खत्म नहीं हो जाता। वोट बटोरने के लिए राजनेता घृणा और नफरत के बीज बो रहे हैं। यह विचारहीनता की परिणति है या राजनीतिक पैंतरा, यह अन्वेषण का विषय हो सकता है, पर वैमनस्यता के बूते पनपने वाली राजनीति राष्ट्रहित में कतई नहीं हो सकती।

कई क्षेत्रीय दलों का अभ्युदय घृणा के बूते पनपने वाली राजनीति के कारण हुआ। धर्म और जाति के आधार पर मतदान करने वाली जनता इन बातों से प्रभावित होती रही है। उत्तार प्रदेश और बिहार की राजनीति जातिगत समीकरणों के इर्द-गिर्द घूमती है। एक दौर ऐसा भी था कि पश्चिमी छोर पर राज ठाकरे द्वारा बिहार और उत्तार प्रदेश के प्रवासियों के हाथ काटने की कवायद हो रही थी तो दक्षिण में अकबरुद्दीन ओवैसी ने सांप्रदायिक भावनाएं भड़काने का काम किया था। इससे पहले दक्षिण में ही हिंदी विरोधी आंदोलन छेड़ा गया था। इसी बीच राष्ट्रीय राजधानी में अरविंद केजरीवाल ने राजनीति शुरू की। उनके कुछ बयानों से आहत प्रवासी भलाई संगठन के समर्थकों ने दिल्ली विधानसभा चुनाव से पूर्व आम आदमी पार्टी के नेता पर निशाना साधा था।

चुनाव के कारण देश भर में घृणा और वैमनस्य की राजनीति चरमोत्कर्ष पर पहुंच जाती है। गत वर्ष महाराष्ट्र में कुछ प्रवासियों के हाथ काट दिए थे। इस तरह की हरकतें भारतीय संविधान की लोकतांत्रिक भावना पर कुठाराघात हैं। अनुभवी नेताओं द्वारा नफरत फैलाने का काम क्षणिक आवेश में जन्मी प्रतिक्त्रिया कतई नहीं है। पिछले तीन दशकों में भारतीय राजनीति में घृणा और हिंसा की प्रवृत्तिका अनवरत विकास हुआ है। कानून निर्माता भाईचारा और प्रेम को प्राथमिकता देने से किस कदर कतराते रहे हैं, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 15वीं लोकसभा में मिर्च-पाउडर का स्प्रे तक हुआ। माननीय सांसदों ने शालीनता की सारी हदें लांघकर लोकतांत्रिक मूल्यों पर कुठाराघात किया। नफरत फैलाने वाले बयानों पर रोक लगाने के उद्देश्य से दायर किए गए एक मुकदमे की सुनवाई के दौरान उच्चतम न्यायालय की लाचारी साफ नजर आई। इस मामले में हुई लंबी बहस के दौरान केंद्र और राज्य के प्रतिनिधियों से न्यायालय ने जवाब-तलब किया था। आश्चर्य की बात है कि कानून की मोटी किताबों में नफरत फैलाने वाली आवाजों पर अंकुश लगाने का कोई प्रावधान नहीं है। चुनाव आयोग की तरफ से वकील मीनाक्षी अरोड़ा की दलीलों और न्यायालय के आदेश से यह बात स्पष्ट हुई। आखिरकार न्यायालय ने साफ कर दिया है कि संसद ही इस समस्या का निदान कर सकती है। इस स्थिति में जनप्रतिनिधियों का चुनाव करने वाली जनता के सामने यह एक गंभीर प्रश्न है।

जाति, धर्म, रंग-रूप और नस्ल की विविधता से उपजी समस्या नई नहीं है। अब मूल निवासियों और प्रवासियों के बीच की गहरी खाई को पाटना आसान नहीं रहा। वसुधैव कुटुंबकम का भाव भारतीय संस्कृति का मूल मंत्र रहा है, परंतु आज राजनीतिक महत्वाकांक्षा की आड़ में भड़काऊ भाषणों के कारण आपसी भाईचारा और सौहा‌र्द्र को ठेस पहुंच रही है। यह सुगम साधन क्या सचमुच मतदाताओं का दिल जीत सकता है? महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना और आम आदमी पार्टी की लोकप्रियता के सामने प्रवासियों का मसला एक बड़ी समस्या है। केजरीवाल के खिलाफ प्रवासी भलाई संगठन की मोर्चाबंदी के कारण दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी को मिलने वाले वोटों पर असर पड़ा था। कई सीटों पर आप प्रत्याशियों को काफी कम वोटों से हार का सामना करना पड़ा था।

प्रवासी संगठन से जुड़े कार्यकर्ता इस संकट को दूर करने में अहम योगदान दे रहे हैं। देश के विभिन्न हिस्सों में सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के आलोक में जागरूकता अभियान चलाने से सुखद भविष्य की उम्मीद बंधती है। आपसी भाईचारा और सौहा‌र्द्र कायम करने के उद्देश्य से जारी यह अभियान भारतीय संस्कृति के संरक्षण की दिशा में महत्वपूर्ण कदम साबित हो सकता है। आम चुनाव के महासमर में यदि मतदाता इस बात पर विचार कर अपने प्रतिनिधि का चुनाव करते हैं तो यह एक सार्थक प्रयास साबित होगा। ऐसा न होने से यह रोग भारतीय संस्कृति की उदारता को नष्ट कर देगा।

[लेखक कौशल किशोर, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं]